वाराणसी : सच मानिए तो ब्लाक प्रमुख सहित सभी अप्रत्यक्ष प्रणाली से लड़े जाने वाले पदों के चुनाव लोकतंत्र का खुला उपहास बन गये है। कहीं पर भी प्रत्याशी की योग्यता को तव्वजो नहीं मिल रही। सिर्फ प्रत्याशी और उसके पीछे की ताकत को ही आंका जा रहा। आज के सभ्य समाज में भी धन और बाहुबल ही अपना लोहा मनवा रहे है। इन सम्मान के पदों पर अब कोई भी पैसों से मजबूत व्यक्ति आसीन हो सकता है। आठों ब्लाक में प्रमुख चुनाव का तमाशा चल रहा है। मूल प्रत्याशी में किसी की दिलचस्पी नहीं है। सभी लोग जानने की कोशिश में है कि इनके पीछे किसकी ऊर्जा (धन,बाहु बल व प्रतिष्ठा) खप रही है। मतलब साफ है कि जो प्रमुख बनेगा वास्तव में वह काम नहीं निबटाएगा। जिसकी ऊर्जा उसके पीछे खपी वही अप्रत्यक्ष रूप में अपना काम साधेगा। ऐसा एक नहीं सभी ब्लाकों में देखने को मिल रहा। ये अलग बात है कि कहीं साधने वालों ने आपसी समझौता कर बड़ी लकीर खींच दी है तो कहीं दावपेंच चल रहा है। महत्वपूर्ण यह है कि कई घराने अधिक से अधिक अपने लोगों को ब्लाक प्रमुख की कुर्सी पर बैठाने की जुगत में लगे है। इस चुनाव में बेचारे मतदाता (बीडीसी)की स्थिति काफी निरीह दिख रही। उनके विजयी प्रमाण पत्र किसी न किसी दबंग ने अपने पास दबा रखा है। कुछ मतदाताओं को बाहर घूमने जाने की भी बात कही जा रही है। चुनाव तक इनकी जिंदगी सांसत में पड़ी हुई है। इन दिनों गांव-गांव में चर्चा मतदाताओं की बोली लगने की हो रही। इसी पर चटकारे लेकर बातें की जा रही है। वैसे कोई भी मतदाता ये स्वीकार करने को तैयार नहीं हो रहा कि उसे कुछ मिला भी है। हां, मदद देने वालों के समर्थक अपने प्रत्याशी की विजय के प्रति आश्वस्त होने का कारण चुकता की गई राशि को ही बता रहे है। साथ में मतदाता के हस्तगत प्रमाणपत्र उनके पास सबूत के रूप में है। कहीं विधायक ने अपनी नाक फंसा रखी है तो कहीं सांसद, पूर्व सांसद या मंत्री की इज्जत दांव पर है। एकाध जगह ऐसा भी देखने को मिला कि परस्पर विरोधी खेमे भी जुगाड़ चुनाव में साथ-साथ हो गए है। प्रमुख चुनाव में ज्यादा बड़े इसलिए भी कूद गए है क्योंकि जिला पंचायत चुनाव बिना लड़े ही फरिया गया। वह भी नवोदित अध्यक्ष की लोकप्रियता थी या दमखम। वह तो अंदरखाने की बात है। इस पर ज्यादा चर्चा करना इस कारण भी बेमानी है कि जब चुनावी व्यवस्था ही ऐसी है तो अवसर पाने वाला अपने हिसाब से सेटिंग करेगा ही।
सोमवार, 20 दिसंबर 2010
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